"To generalise something is to trivialise it. If one is to expend oneself in an endeavour, it better be not reduced to a travesty in the process." - The Author
Friday, 11 September 2015
Monday, 7 September 2015
बड़े दिनों बाद
बड़े दिनों बाद आज एक बार फिर हिंदी मैं लिखने का साहस कर रहा हूँ। वैसे तो दो दिन पहले माँ के कहने पर एक निबंध लिखने की कोशिश की थी पर उसमे उनके आंकलन के हिसाब से सफलता नहीं मिली। आठवीं कक्षा तक बहुत रूचि से इस भाषा का प्रयोग करता था; लेकिन उसके बाद संस्कृत भाषा के चयन करने से हिंदी से समझो नाता ही टूट गया! आज ब्लॉगर ने प्रेरित किया की क्यों न हिंदी में कुछ लिखा जाए तो मुझे भी यह बात रास आ गयी।
स्कूल के दिनों से ही हिंदी व अंग्रेज़ी भाषाएँ बेहद दिलचस्प रहीं हैं। मैं बहुत खुशनसीब था की मुझे दोनों ही विषयों को पढ़ाने वाली अध्यापिकाएँ विश्व-स्तरीय थी और यह केवल उनके सराहनीय उपलब्धियों का नतीजा है की मुझे अपने विचारों को व्यक्त करने में सरलता महसूस होती है। आज भी मुझे अपने हिंदी की व्याकरण के किताब का स्मरण है। उसमे दिए हुए कुछ मुहावरे, संधि करने के नियम कुछ-कुछ याद आते हैं। भाषा की भिन्न-भिन्न नियमों को कंठस्थ करना और बिना कोई चूक किये उसका प्रयोग करना सबके बस की बात नहीं है। मुझे आज भी अपनी पाठशाला में लिखे हुए श्रुतलेख याद आते हैं। मेरे शिक्षकगंण अपने विषयों में इतने पारंगत थे, कि उनके पढ़ाने पर कोई प्रश्न पूछने की आवश्यकता ही नहीं उत्पन्न होती थी। हर पाठ रोचक प्रतीत होता था। कहानियों और कविताओं से काफी कुछ सीखने को मिलता था। कितनी ही कविताओं को मौखिक परीक्षा के लिए याद करके लय में गाया भी है। उन दिनों पढ़ने की भी अलग धुन सवार थी, पढ़ना तब आनंदमय हुआ करता था। उसके लिए किसी को टोकना या याद भी नहीं दिलाना होता था। एक नियमित रूप से पढाई होती जाती थी। उसे कभी चिंता-स्वरुप देखने की नौबत ही नहीं आती थी।
अब हालात कुछ बदले हुए से नज़र आते हैं। पढ़ने के लिए प्रेरणास्त्रोत की जरुरत आन पड़ी! बड़े सारे विकर्षण पैदा हो गये। अब ध्यान लगाने के लिए ख़ास मशक़्क़त करनी पड़ती है। हर घड़ी, दिमाग के किसी कोने में नयी समस्या जन्म लेती है और उसका हल ढूंढने में हम हताश हो जाते हैं। धैर्यता का आभाव नज़र आता है। जल्दबाज़ी का पागलपन शीर्षता पर है। हर कार्य को पूरा करने का मन तो है पर वह कैसे पूर्ण होंगे उसकी कोई योजना नहीं। मैं निराशावादी तो कतई नहीं हूँ पर आशा तभी रंग लाती है जब आप दृढ़ संकल्प से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में तत्पर रहें। मेहनत का विकल्प बुद्धिमता नहीं हो सकती। आराम फरमा कर जीतने की कल्पना करना तो मूर्खता होगी। और वैसे भी, यदि कोई चीज़ बिना संघर्ष के प्राप्त हो जाए तो उसका मूल्य भली-भाँती पता नहीं चलता और उसे खोने का भी गम नहीं होता।
जीवन भी एक परीक्षा के सामान ही है, बस उत्तीर्ण होने के अलग अलग मापदंड हैं। अगर हम अपना जीवन बिना दूसरों को कष्ट पहुंचाए, शान्ति से, समृद्धि की ओर अग्रसर हो सकते हैं तो मेरे दृष्टिकोण में वह एक सफल जीवन कहलायेगा। जितनी हम अपनी दिनचर्या को सरल रखने का प्रयास करेंगे उतना ही हमारे लिए लाभदायक होगा। बिना किसी कारण के दूसरों से बैर रखना, उनकी बुराई करना या मन में किसी भी प्रकार का द्वेष रखने से हमारी अंतरात्मा को निस्संदेह नुकसान पहुँचता है। भलाई इसी मैं है की हम "कर भला तो हो भला" के पथ पर चले जिससे सबका कल्याण हो। गलतियां भी जीवन का एक अवियोज्य हिस्सा हैं, पर जैसा की हम जानते ही हैं, उनपर ज़रूरत से ज़्यादा समय खर्च करना भी गलत है। अपना जीवन व्यतीत करते हुए हम निरंतर एक आदर्श छात्र की तरह सीखते रहें, व्यव्हार में अपेक्षित बदलाव लाते रहें, और सदैव खुशहाल रहने के प्रयास में जुटे रहें।
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